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वृक्षों में भी होती है आत्मविस्तार की प्रवृत्ति, ऐसे बढ़ाते हैं परिवार


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(पंडित श्री राम शर्मा आचार्य )
प्रकृति ने अपने परिवार में भिन्न-भिन्न रुचि और प्रकृति के प्राणियों, जीव-जन्तुओं तथा वृक्ष-वनस्पतियों और जड़-पदार्थों को सम्मिलित किया है। ये सभी सदस्य एक नियम मर्यादा के अंतर्गत रहते हुए काम करते हैं, कहा जाना चाहिए कि प्रकृति ने कुछ नियम मर्यादाएं इस प्रकार निर्धारित की हैं, जो सृष्टि संतुलन की दृष्टि से नितांत आवश्यक हैं। यह नियम केवल मनुष्यों के लिए ही नहीं वरन् अन्य प्राणियों के लिए भी बनाए गए हैं। यहां तक कि वृक्ष-वनस्पतियों के लिए भी। मनुष्य को छोड़कर सभी इन नियमों, मर्यादाओं का पालन करते हैं।
मनुष्य जीवन का लक्ष्य आत्म-विस्तार मान जाता है। अपना आपा बढ़े, व्यक्तित्व का विकास हो, आत्म-चेतना विकसित होकर सुदूर क्षेत्रों में फैले इसके लिए भांति-भांति के प्रयास किए जाते हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र में विस्तार की यही प्रक्रिया आत्मीयता का क्षेत्र बढ़ाकर सबमें अपने को और अपने में सबको देखनेवाला तत्व दर्शन हृदयंगम कराती है।वनस्पति जगत में भी आत्म-विस्तार की यही बात लागू होती है। पौधे बढ़ते और विकसित होते हैं। अंततः उनकी प्रौढ़ता परिपक्व होकर फलवती होती है। तथा उन पर फल-फूल लगते हैं। यह फल-फूल मनुष्यों सहित अन्य प्राणियों के लिए आहार का काम देते हैं पर जहां तक वृक्ष के स्वयं के लिए इन फलों के उपयोग का प्रश्न है, वह उनकी बीज सत्ता को अक्षुण्ण बनाए रहने के लिए उसे परिपुष्ट बनाने और सुविस्तृत बनाए रहने के उद्देश्य में ही सन्निहित देखी जा सकती है। वृक्ष परोपकार के लिए तो जीते ही हैं, फलवान बनते ही हैं, इसके अलावा उनके पीछे फलवान होकर अपनी सार्थकता सिद्ध होने का उद्देश्य भी रहता है।
फलों के होते हैं ये दो उद्देश्य
फलों के भीतर गुद्दा भरा रहता है और गुद्दे के भीतर बीज होता हैं। गुद्दे में बीज एक ही स्थान पर इकट्ठे नहीं रहते वरन् दूर-दूर फासले पर होते हैं, इसी प्रकार पूरे वृक्ष पर न तो एक ही फल लगा होता है तथा न ही सभी फल एक ही स्थान पर लगे होते हैं। प्रकृति ने ऐसी व्यवस्था क्यों की? इस प्रश्न पर विचार करने से स्पष्ट होता है कि प्रगति के जो आधार प्रकृति ने मनुष्यों के लिए बनाए हैं, वैसे ही वृक्षों के लिए भी विनिर्मित किए गए हैं। गुद्दे का उद्देश्य है, बीज को पोषण देना। गुद्दा बीज को पोषण देता है, उसे परिपुष्ट करता है और प्रौढ़ावस्था तक पहुंचता है। माता के गर्भ में जिस प्रकार भ्रूण फलता है, उसी प्रकार फल के उदर में, बीच में बैठा हुआ बीज भी धीरे-धीरे पुष्ट और समर्थ होता चलता है।
एक वृक्ष में अनेकों फल लगते हैं और प्रत्येक फल में कई बीज होते हैं। यह सब इसलिए होता है कि उसकी सत्ता को अधिकाधिक विस्तार करने का अवसर मिले। वह सीमित दायरे में संकीर्णता की परिधि में आबद्ध रहकर ही अविकसित न रह जाए। मनुष्य को भी आत्म विस्तार के बिना न तो वास्तविक आत्मसंतोष मिलता है तथा न ही उसे आत्मगौरव की अनुभूति होती है। जब मनुष्य को ही प्रकृति सीमित से असीम की ओर, अपूर्णता से पूर्णता की ओर, क्षुद्रता से महानता की ओर निरंतर बढ़ते रहने, प्रत्यक्ष करने के लिए प्रेरित करती रहती है तो वृक्ष वनस्पतियों के साथ ही पक्षपात क्यों करें?
सर्वविदित है कि प्रत्येक बीज में एक पूर्ण वृक्ष परिपूर्ण रूप से विद्यमान रहता है। प्रत्येक बीज अपने आप में एक वृक्ष के रूप में विकास करने की संभावना लिए रहता है। बीज जब-जब परिपुष्ट हो जाता है तो उसका उद्देश्य रहता है, उसी जाति के नए वृक्ष उत्पन्न करना। इसके साथ ही यह आवश्यक हो जाता है कि वह परिपुष्ट होने के बाद केवल समीपवर्ती क्षेत्र तक ही सीमित न रहे वरन् क्षेत्र का सीमा बंधन लांघकर, सुदूर क्षेत्रों तक अपनी सत्ता को सुविस्तृत बनाए।
प्रकृति प्रेरणा वृक्षों से फलों के द्वारा यही सब कुछ कराती है। उनके फलने और फलों के पकने साथ-साथ उनमें वितरण की चेष्टा भी उत्साहपूर्वक चलती है। गुद्दे में बीजों की अलग-अलग स्थिति का एक उद्देश्य वितरण में सुविधा भी है। गुद्दा तो खाने के काम आ जाता है परन्तु बीज प्रायः कड़े होते हैं, इसलिए उन्हें फेंक दिया जाता है। गुद्दा समाप्त हो जाने पर भी बीजों का अस्तित्व बना रहता है। यदि उन्हें पीसकर नहीं खाया गया है तो चबाने पर भी उनमें से अधिकांश साबुत बच जाते हैं। पेट में पहुंच जाने पर भी वे प्रायः नहीं ही पचते हैं। मल विसर्जन के समय वे मल के साथ निकलकर इधर-उधर छितराते, धक्के खाते और बढ़ते रहते हैं।
लड़ाकू होते हैं कुछ वृक्षों के फल
गुद्दे में पके हुए बीज विकसित होकर सुदूर क्षेत्रों में फैल सकें, इसके लिए प्रकृति ने अनेकों प्रकार की व्यवस्थाएं की हैं। प्राणियों द्वारा उनका खाया जाना और मल विसर्जन के साथ-साथ उनका दूर-दूर पहुंचना तो प्रत्यक्ष ही है। कई बीज फेंक दिए जाते हैं। बीजों का व्यवसाय भी होता है। अनाज की तरह अन्य बीज भी खरीदे बेचे जाते हैं और इस प्रकार भी वे यहां से वहां यात्रा करते रहते हैं। वनस्पति जगत में हल्के बीजों की कमी नहीं है। हवा असंख्य बीजों को अपने साथ उड़ाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाती है। हवा में उड़कर कहीं भी पहुंच जानेवाले बीजों की संख्या अगणित है। कुनैन जिस सिमकोना पौधे से बनती है, उसके बीज इतने हल्के होते हैं कि एक औंस (लगभग 29 ग्राम) में 70 हजार तोले जा सकते हैं। आर्किडो के बीज भी तो इससे भी हल्के होते हैं और उनकी बनावट भी पक्षी के परों की तरह होती है। हल्केपन और बनावट दोनों विशेषताओं के कारण वे हवा के साथ आसानी से उड़ते चले जाते हैं और हवा उन्हें कहीं का कहीं लेजाकर फेंक देती है। आक के बीज में तो इतने अधिक कोमल और बारीक रेशे निकले होते हैं कि वह मंद वायु प्रवाह में भी कहीं से कहीं उड़कर पहुंच जाते हैं। इसी प्रकार कुछ और बड़े भारी बीजों में सूर्यमुखी, डेडिलियोन, सीमा, बेलकुन, आक, सेसर, सरकंडा आदि के बीज ऐसे हैं, जो पैराशूट की तरह बने होते हैं तथा हवा का तनिक-सा सहारा पाकर लंबी उड़ान लगते हैं। उन्हें नीचे उतरने और ऊपर चढ़ने में कोई कठिनाई नहीं होती।
कुछ वृक्षों के तो फल ही उड़ाकू होते हैं। वे अपने बीज परिवार को साथ लेकर ही उड़ान पर निकल जाते हैं तथा क्षेत्र विस्तार कर लेते हैं, ऐसे उड़ने वाले फलों में होलोक, मधुलता जमीकन्द, होपियामेपल, फ्रेक्सीनस, डिपटीरोकामस, साल आदि के नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इनमें से एथेलस की बनावट हवाई जहाज जैसी है। लगता है इसी फल को देख कर हवाई जहाज के डिजाइन की कल्पना की गई होगी। आंधियां जब चलती हैं, तब ये फल अपने बीजों के साथ उड़ जाते हैं और सुदूर स्थानों पर पहुंच जाते हैं, जड़ी बूटियां भी प्रायः इसी प्रकार हवा में उड़ती हुई जहां-तहां पहुंचती हैं।
अपने बलबूते ऐसे सफर करते हैं बीज
गिलहरी, चूहे, चींटियां और इसी तरह के कुछ जन्तु तथा कीड़े जहां-तहां पहुंच जाते हैं। इस संग्रह को वे बिलों में जमा करते हैं। फिर इन्हीं में से कुछ बीज अस्त-व्यस्त हो कर जहां-तहां पहुंच जाते हैं। पक्षियों के पैरों में चिपकी मिट्टी के साथ अथवा उनकी बीट के माध्यम से भी अनेक वनस्पतियां तथा वृक्ष लंबी यात्राएं करते हुए पृथ्वी के एक छोर से दूसरे छोर तक पहुंच जाते हैं। कुछ बीज ऐसे होते हैं जो हवा, पानी, मनुष्य आदि की सहायता न पाने पर स्वयं ही अपनी प्रकृति प्रेरणा से आत्मविस्तार का रास्ता अपने बलबूते पर बनाते हैं। और जिस-तिस प्राणी के शरीर से चिपटकर कहीं के कहीं पहुंच जाते हैं। लटजीरा, गोखरू, बन-औखरा, चारेकांटा, बुइया ठीकरी, चित्रक आदि के फल अथवा बीज अपने कांटों के साथ पशु पक्षियों के शरीर एवं मनुष्यों के कपड़ों को पकड़ लेते हैं और उनके सहारे कहीं से कहीं जा पहुंचते हैं।
इस प्रकार प्रकृति ने वृक्ष वनस्पतियों को अपना आपा विस्तृत करने की न केवल प्रेरणा दी है, वरन् उसके लिए आवश्यक साधन सुविधाएं भी जुटाई हैं। मनुष्य के लिए भी उसका संदेश अपना आपा व्यापक बनाना है। व्यक्तिवाद की संकीर्ण स्वार्थपरता के निरस्त करके लोकहित की जन-कल्याण की सत्प्रवृत्तियों में अपनी विभूतियों को समर्पित करके ही मनुष्य अपना जीवन सफल और सार्थक बना सकता है। (साभार: अखंड ज्योति अप्रैल १९८१ )

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