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Showing posts from July, 2018

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64 कलाओं में महारत थे श्री कृष्ण

श्री कृष्ण अपनी शिक्षा ग्रहण करने आवंतिपुर (उज्जैन) गुरु सांदीपनि के आश्रम में गए थे जहाँ वो मात्र 64 दिन रह थे। वहां पर उन्होंने ने मात्र 64 दिनों में ही अपने गुरु से 64 कलाओं की शिक्षा हासिल कर ली थी। हालांकि श्री कृष्ण भगवान के अवतार थे और यह कलाएं उन को पहले से ही आती थी। पर चुकी उनका जन्म एक साधारण मनुष्य के रूप में हुआ था इसलिए उन्होंने गुरु के पास जाकर यह पुनः सीखी। निम्न 64 कलाओं में पारंगत थे श्रीकृष्ण 1- नृत्य – नाचना 2- वाद्य- तरह-तरह के बाजे बजाना 3- गायन विद्या – गायकी। 4- नाट्य – तरह-तरह के हाव-भाव व अभिनय 5- इंद्रजाल- जादूगरी 6- नाटक आख्यायिका आदि की रचना करना 7- सुगंधित चीजें- इत्र, तेल आदि बनाना 8- फूलों के आभूषणों से श्रृंगार करना 9- बेताल आदि को वश में रखने की विद्या 10- बच्चों के खेल 11- विजय प्राप्त कराने वाली विद्या 12- मन्त्रविद्या 13- शकुन-अपशकुन जानना, प्रश्नों उत्तर में शुभाशुभ बतलाना 14- रत्नों को अलग-अलग प्रकार के आकारों में काटना 15- कई प्रकार के मातृका यन्त्र बनाना 16- सांकेतिक भाषा बनाना 17- जल को बांधना। 18- बेल-बूटे बनाना 19- चावल और

भीम में कैसे आया 10 हज़ार हाथियों का बल?

पाण्डु पुत्र भीम के बारे में माना जाता है की उसमे दस हज़ार हाथियों का बल था जिसके चलते एक बार तो उसने अकेले ही नर्मदा नदी का प्रवाह रोक दिया था।  लेकिन भीम में यह दस हज़ार हाथियों का बल आया कैसे इसकी कहानी बड़ी ही रोचक है। कौरवों का जन्म हस्तिनापुर में हुआ था जबकि पांचो पांडवो का जन्म वन में हुआ था।  पांडवों के जन्म के कुछ वर्ष पश्चात पाण्डु का निधन हो गया। पाण्डु की मृत्यु के बाद वन में रहने वाले साधुओं ने विचार किया कि पाण्डु के पुत्रों, अस्थि तथा पत्नी को हस्तिनापुर भेज देना ही उचित है। इस प्रकार समस्त ऋषिगण हस्तिनापुर आए और उन्होंने पाण्डु पुत्रों के जन्म और पाण्डु की मृत्यु के संबंध में पूरी बात भीष्म, धृतराष्ट्र आदि को बताई। भीष्म को जब यह बात पता चली तो उन्होंने कुंती सहित पांचो पांण्डवों को हस्तिनापुर बुला लिया। हस्तिनापुर में आने के बाद पाण्डवों केवैदिक संस्कार सम्पन्न हुए। पाण्डव तथा कौरव साथ ही खेलने लगे। दौडऩे में, निशाना लगाने तथा कुश्ती आदि सभी खेलों में भीम सभी धृतराष्ट्र पुत्रों को हरा देते थे। भीमसेन कौरवों से होड़ के कारण ही ऐसा करते थे लेकिन उनके मन में कोई वैर-भ

कब, क्यों और कैसे डूबी द्वारका?

श्री कृष्ण की नगरी द्वारिका महाभारत युद्ध के 36 वर्ष पश्चात समुद्र में डूब जाती है। द्वारिका के समुद्र में डूबने से पूर्व श्री कृष्ण सहित सारे यदुवंशी भी मारे जाते है।  समस्त यदुवंशियों के मारे जाने और द्वारिका के समुद्र में विलीन होने के पीछे मुख्य रूप से दो घटनाएं जिम्मेदार है।  एक माता गांधारी द्वारा श्री कृष्ण को दिया गया श्राप और दूसरा ऋषियों द्वारा श्री कृष्ण पुत्र सांब को दिया गया श्राप।  आइए इस घटना पर विस्तार से जानते है। प्राचीन द्वारका नगरी (डेमो पिक्स) गांधारी ने दिया था यदुवंश के नाश का श्राप – महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद जब युधिष्ठर का राजतिलक हो रहा था तब कौरवों की माता गांधारी ने महाभारत युद्ध के लिए श्रीकृष्ण को दोषी ठहराते हुए श्राप दिया की जिस प्रकार कौरवों के वंश का नाश हुआ है ठीक उसी प्रकार यदुवंश का भी नाश होगा। ऋषियों ने दिया था सांब को श्राप – महाभारत युद्ध के बाद जब छत्तीसवां वर्ष आरंभ हुआ तो तरह-तरह के अपशकुन होने लगे। एक दिन महर्षि विश्वामित्र, कण्व, देवर्षि नारद आदि द्वारका गए। वहां यादव कुल के कुछ नवयुवकों ने उनके साथ परिहास (मजाक) करन

श्री कृष्ण और दुर्योधन थे समधी

महाभारत के युद्ध में कौरवों के विरूद्ध पांडवों का साथ देने वाले श्री कृष्ण दुर्योधन के समधी थे। श्री कृष्ण के पुत्र ने दुर्योधन की पुत्री का हरण कर विवाह किया था।बात यूँ है की दुर्योधन के एक पुत्री थी जिसका नाम लक्ष्मणा था। जब लक्षमणा बड़ी हुई तो दुर्योधन ने उसका विवाह करने के लिए एक स्वयंवर का आयोजन किया। उस स्वयंवर में बहुत से वीर पराक्रमी राज कुमार उपस्थित हुए। पर राजकुमारी लक्ष्मणा, राजकुमार साम्ब को चाहती थी जो की श्री कृष्ण और रानी जाम्बवती के पुत्र थे। साम्ब और लक्ष्मणा पहले से ही एक दूसरे से प्यार करते थे और वो यह भी जानते थे की कौरव यह विवाह नहीं होने देंगे। इसलिए साम्ब ने  स्वयंवर से पहले ही  लक्ष्मणा का हरण कर लिया। साम्ब जब लक्ष्मणा का हरण करके जाने लगा तो कौरवों ने उसका पीछा किया और उसे पकड़कर बंदी बना लिया। जब साम्ब को बंदी बनाने की बात द्वारका पहुंची तो सारे यदुवंशी कौरवों के साथ युद्ध करने की तैयारी करने लगे, लेकिन श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम ने उन्हें रोक दिया और कहाँ की मैं स्वयं हस्तिनापुर जाकर उन्हें ले के आयूंगा।बलराम ने हस्तिनापुर पहुंचकर कौरवों से साम्ब व

रहस्यमयी और अलौकिक निधिवन – यहाँ आज भी राधा संग रास रचाते है कृष्ण, जो भी देखता है हो जाता है पागल

भारत में कई ऐसी जगह है जो अपने दामन में कई रहस्यों को समेटे हुए है ऐसी ही एक जगह है वृंदावन स्तिथ निधि वन जिसके बारे में मान्यता है की यहाँ आज भी हर रात कृष्ण गोपियों संग रास रचाते है। यही कारण है की सुबह खुलने वाले निधिवन को संध्या आरती के पश्चात बंद कर दिया जाता है। उसके बाद वहां कोई नहीं रहता है यहाँ तक की निधिवन में दिन में रहने वाले पशु-पक्षी भी संध्या होते ही निधि वन को छोड़कर चले जाते है। जो भी देखता है रासलीला हो जाता है पागल : वैसे तो शाम होते ही निधि वन बंद हो जाता है और सब लोग यहाँ से चले जाते है। लेकिन फिर भी यदि कोई छुपकर रासलीला देखने की कोशिश करता है तो पागल हो जाता है। ऐसा ही एक वाक़या करीब 10 वर्ष पूर्व हुआ था जब जयपुर से आया एक कृष्ण भक्त रास लीला देखने के लिए निधिवन में छुपकर बैठ गया। जब सुबह निधि वन के गेट खुले तो वो बेहोश अवस्था में मिला, उसका मानसिक संतुलन बिगड़ चूका था। ऐसे  अनेकों किस्से यहाँ के लोग बताते है। ऐसे ही एक अन्य वयक्ति थे पागल बाबा जिनकी समाधि भी निधि वन में बनी हुई है। उनके बारे में भी कहा जाता है की उन्होंने भी एक बार निधि वन में छुपकर रास लील

श्री कृष्ण ने किए थे 8 विवाह

पुराणों के अनुसार श्री कृष्ण ने 8 स्त्रियों से विवाह किया था जो उनकी पटरानियां बानी थी। ये थी – रुक्मिणी, जाम्बवती, सत्यभामा, कालिन्दी, मित्रविंदा, सत्या(नाग्नजिती), भद्रा और लक्ष्मणा। आइए जानते है श्रीकृष्ण द्वारा इन आठ के साथ किए गए विवाह की कहानियां – 1. रुक्मिणी- विदर्भ राज्य का भीष्म नामक एक वीर राजा था। उसकी पुत्री का नाम रुक्मिणी था। वह साक्षात लक्ष्मीजी का ही अंश थीं। वह अत्यधिक सुंदर और सभी गुणों वाली थी। नारद जी द्वारा श्रीकृष्ण के गुणों सा वर्णन सुनने पर रुक्मिणी श्रीकृष्ण से ही विवाह करना चाहती थी। रुक्मिणी के रूप और गुणों की चर्चा सुनकर भगवान कृष्ण ने भी रुक्मिणी के साथ विवाह करने का निश्चय कर लिया था। रुक्मिणी का एक भाई था, जिसना नाम रुक्मि था। उसने रुक्मिणी का विवाह शिशुपाल से साथ तय कर दिया था। जब यह बात श्रीकृष्ण को पता चली तो वे विवाह से एक दिन पहले बलपूर्वक रुक्मिणी का हरण कर द्वारका ले गए। द्वारका पहुंचने के बाद श्रीकृष्ण और रुक्मिणी का विवाह किया गया। 2. जाम्बवती- सत्राजित नामक एक यादव था। उसने भगवान सूर्य की बहुत भक्ति की। जिससे खुश होकर भगवान ने उसे

कृष्ण, बलराम और राक्षस

महाभारत काल की बात है। एक बार कृष्ण और बलराम किसी जंगल से गुजर रहे थे। चलते-चलते काफी समय बीत गया और अब सूरज भी लगभग डूबने वाला था। अँधेरे में आगे बढना संभव नहीं था, इसलिए कृष्ण बोले, “ बलराम, हम ऐसा करते हैं कि अब सुबह होने तक यहीं ठहर जाते हैं, भोर होते ही हम अपने गंतव्य की और बढ़ चलेंगे।” बलराम बोले, “ पर इस घने जंगल में हमें खतरा हो सकता है, यहाँ सोना उचित नहीं होगा, हमें जाग कर ही रात बितानी होगी।” “अच्छा, हम ऐसा करते हैं कि पहले मैं सोता हूँ और तब तक तुम पहरा देते रहो, और फिर जैसे ही तुम्हे नींद आये तुम मुझे जगा देना; तब मैं पहरा दूंगा और तुम सो जाना।”, कृष्ण ने सुझाव दिया। बलराम तैयार हो गए। कुछ ही पलों में कृष्ण गहरी नींद में चले गए और तभी बलराम को एक भयानक आकृति उनकी ओर आती दिखी, वो कोई राक्षस था। राक्षस उन्हें देखते ही जोर से चीखा और बलराम बुरी तरह डर गए। इस घटना का एक विचित्र असर हुआ- भय के कारण बलराम का आकार कुछ छोटा हो गया और राक्षस और विशाल हो गया। उसके बाद राक्षस एक बार और चीखा और पुन: बलराम डर कर काँप उठे, अब बलराम और भी सिकुड़ गए और राक्षस पहले से भी

बुद्ध पूर्णिमा 2018: इस तरह सत्य की खोज कराई महात्मा बुद्ध ने

ओशो जिसे तुम धर्म कहते हो, आम तौर से उसमें श्रद्धा पहला कदम है और संदेह की तो कोई जगह ही नहीं है। इसलिए बहुत बुद्धिमान लोगों को मजबूरी में अधार्मिक रहना पड़ता है, क्योंकि यह बात उनकी पकड़ में ही नहीं आती। संदेह को कहां ले जाएं? है तो है! और अगर परमात्मा ने दिया है संदेह तो उसे काटकर कैसे फेंक दें? उसका कोई उपयोग होना चाहिए। इसलिए मैं कहता हूं, बुद्ध ने अनूठी बात कही। बुद्ध ने कहा, ‘संदेह का उपयोग हो सकता है। संदेह को श्रद्धा की सेवा में लगाया जा सकता है। संदेह के ही सहारे श्रद्धा खोजी जा सकती है। यही तो विज्ञान करता है और वैज्ञानिक जब एक निष्पत्ति पर पहुंचता है तो संदेह का कारण ही नहीं रह जाता। सब परीक्षण कर लिए, अवलोकन कर लिया, सब तरह से जांच-परख कर ली, ऐसा पाया। तथ्य। धारणा नहीं, तथ्य। बुद्ध का एक नाम है तथागत। उसका अर्थ होता है, जिसने जगत में तथ्य को लाया, जिसके द्वारा जगत में तथ्य आया। इसके पहले कल्पनाएं थीं, धारणाएं थीं, विश्वास था। तथागत प्यारा शब्द है। उसके बहुत अर्थ होते हैं। एक अर्थ में ‘आगत’ का अर्थ होता है, आया और ‘तथा’ का अर्थ होता है, तथ्य। जिसके द्वारा तथा, तथ्य जगत म

उसी दिन तुम्हारे जीवन में क्रांति शुरू हो जाएगी- ओशो

मैं पढ़ रहा था, दूसरे महायुद्ध में एक घटना घटी। बर्मा के जंगलों में सैनिकों का एक जत्था जूझ रहा है युद्ध में, महीनों हो गए। उन युवकों ने स्त्री की शक्ल नहीं देखी। और एक दिन दोपहर को एक तोता उड़ा जोर से कहता हुआ कि बड़ी सुंदर युवती है, अत्यंत सुंदर युवती है। सैनिकों ने अपनी बंदूकें रख दीं। बहुत दिन हुए स्त्री नहीं देखी। और तोता कह रहा है तो वे सब तोते का पीछा करते हुए भागे कि कहां जा रहा है। और वे जब पहुंचे, परेशान, झाड़ियों को पार करके, तो वहां कोई स्त्री न थी। एक मादा तोता, जिसकी वह तोता खबर कर रहा था। उन्होंने अपना सिर पीट लिया कि कहां इस नासमझ की बातों में पड़े! लेकिन तोते का रस मादा तोते में है। तुम्हें कोई रस नहीं मालूम होता मादा तोते में। मादा तोते में कोई रस है भी नहीं। वह तो नर तोते की धारणा में है। पुरुष को स्त्री में रस मालूम होता है। स्त्री को पुरुष में रस मालूम होता है। वह रस बाहर नहीं है, वह तुम्हारी भावदशा में है। वह तुममें है। बुखार के बाद स्वादिष्ट से स्वादिष्ट भोजन में स्वाद नहीं मालूम होता। तुम्हारी जीभ ही बदल गयी है। तुम्हारी जीभ में स्वाद लेने की जो क्षमता है, वही न

ऐसे लोग ही जीवन में सफल हो पाते हैं-पं. श्रीराम शर्मा आचार्य

पं. श्रीराम शर्मा आचार्य/शांतिकुंज, हरिद्वार हर इंसान तरह-तरह के मन के लड्डू बनाते हैं, सुखी, समृद्ध होने के बड़े-बड़े मनसूबे पालते हैं परन्तु उन में से सफल बहुत ही थोड़े हो पाते हैं। शेखचिल्ली के से सपने यदि सफल हो जाया करें तो पुरुष और पौरुष का कोई फर्क ही इस संसार में नहीं रहता। इच्छा, प्रयत्न, परिश्रम, लगन और दृढ़ता न हो तो सफलता की देवी ऐसे लोगों की ओर आंख उठाकर भी नहीं देखती। सिद्धि उन्हें ही मिलती है जो अपनी चाहत को पूरी करने के लिए जी जान से प्रयास करते हैं। ज्ञानीजनों ने कहा है- “उद्योगि नं पुरुष सिंह भुपैति लक्ष्मी, दैवेनदेव मति का पुरुषो बदन्ति।” लक्ष्मी उद्योगी पुरुषों को ही प्राप्त होती है और कायर लोग दैव-दैव पुकारा करते हैं। एक अन्य वचन है कि- ‘कायरा इति जल्पन्ति यद्भाव्यं तद्भविष्यति” कायर लोग ऐसी बकवास करते रहते हैं कि जो होना है वही होगा। “न प्रसुप्तस्य सिंहस्य प्रविशंति मुखे मृगाः” सोते हुए सिंह के मुख में हिरन खुद प्रवेश नहीं करते, बल्कि सिंह को ही उन मृगों को पकड़ना और खाना पड़ता है। रामायण का कथन है- “दैव दैव आलसी पुकारा।” भाग्य के भरोसे बैठे रहने से तरह-

क्या वाकई मंदिर दर्शन से होता है लाभ, जानें वैज्ञानिक कारण

हमारा देश  अपनी समृद्ध परंपरा और संस्कृति के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध है। यहां आज भी कई प्राचीन काल के मंदिर मौजूद हैं। जहां अलग-अलग देवी-देवताओं को समर्पित इन मंदिरों में प्रायः लोग परिवार या अकेले भी अपने इष्टदेव की आराधना के लिए पहुंचते हैं। मगर क्या आपके मन में भी कभी यह सवाल आया है मंदिर जाकर दर्शन करने का विधान क्यों बनाया गया है। इसके पीछे भले ही आध्यात्मिक विचारधारा काम करती हो पर इसके कई वैज्ञानिक कारण भी हैं। मंदिर की संरचना हमारे शास्त्र और विज्ञान इस विषय पर एक राय रखते हैं। दरअसल मंदिर जाने से आपके भीतर सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। जिससे हमारी पांचों इंद्रियां जागृत होती हैं। ऐसा इस वजह से होता है क्योंकि कोई भी मंदिर हमेशा उत्तरी छोर पर बनाया जाता है, जहां से चुम्बकीय तरंगों का प्रवाह सबसे अधिक होता है। इससे लोगों के शरीर में अधिकतम सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है। भगवान की मूर्ति अक्सर आपने ध्यान दिया होगा कि मंदिर में अराध्य देव की मूर्ति गर्भगृह या मध्य स्थान पर स्थापित की जाती है। शास्त्र में इस स्थान को सबसे अधिक ऊर्जावान बताया गया है। जिसके समीप

जन्म के वक्त जो आत्मा होती है, मृत्यु के वक्त वह नहीं होती: ओशो

बुद्ध  ने कहा, ऐसा कुछ भी नहीं है। चीजें हो रही हैं। बुद्ध ने जो प्रतीक लिया है जीवन को समझाने के लिए, वह है दीए की ज्योति। सांझ को तुम दीया जलाते हो। रातभर दीया जलता है, अंधेरे से लड़ता है। सुबह तुम दीया बुझाते हो। क्या तुम वही ज्योति बुझाते हो जो तुमने रात में जलाई थी? वही ज्योति तो तुम कैसे बुझाओगे? वह ज्योति तो करोड़ बार बुझ चुकी। ज्योति तो प्रतिपल बुझ रही है, धुआं होती जा रही है। नई ज्योति उसकी जगह आती जा रही है। रात तुमने जो ज्योति जलाई उस ज्योति की जगह तुम उसकी श्रृंखला को बुझाओगे, उसी को नहीं। वह तो जा रही है, भागी जा रही है, तिरोहित हुई जा रही है आकाश में। नई ज्योति प्रतिपल उसकी जगह आ रही है। तो बुद्ध ने कहा, तुम्हारे भीतर कोई आत्मा है ऐसा नहीं, चित्त का प्रवाह है। एक चित्त जा रहा है, दूसरा आ रहा है। जैसे दीए की ज्योति आ रही है। तुम वही न मरोगे जो तुम पैदा हुए थे। जो पैदा हुआ था, वह तो कभी का मर चुका। जो मरेगा वह उसी संतति में होगा, उसी श्रृंखला में होगा लेकिन वही नहीं। यह बुद्ध की धारणा बड़ी अनूठी है। लेकिन बुद्ध ने जीवन को पहली दफा जीवंत करके देख और जीवन को क्रिया में देखा

वृक्षों में भी होती है आत्मविस्तार की प्रवृत्ति, ऐसे बढ़ाते हैं परिवार

(पंडित श्री राम शर्मा आचार्य ) प्रकृति ने अपने परिवार में भिन्न-भिन्न रुचि और प्रकृति के प्राणियों, जीव-जन्तुओं तथा वृक्ष-वनस्पतियों और जड़-पदार्थों को सम्मिलित किया है। ये सभी सदस्य एक नियम मर्यादा के अंतर्गत रहते हुए काम करते हैं, कहा जाना चाहिए कि प्रकृति ने कुछ नियम मर्यादाएं इस प्रकार निर्धारित की हैं, जो सृष्टि संतुलन की दृष्टि से नितांत आवश्यक हैं। यह नियम केवल मनुष्यों के लिए ही नहीं वरन् अन्य प्राणियों के लिए भी बनाए गए हैं। यहां तक कि वृक्ष-वनस्पतियों के लिए भी। मनुष्य को छोड़कर सभी इन नियमों, मर्यादाओं का पालन करते हैं। मनुष्य जीवन का लक्ष्य आत्म-विस्तार मान जाता है। अपना आपा बढ़े, व्यक्तित्व का विकास हो, आत्म-चेतना विकसित होकर सुदूर क्षेत्रों में फैले इसके लिए भांति-भांति के प्रयास किए जाते हैं। आध्यात्मिक क्षेत्र में विस्तार की यही प्रक्रिया आत्मीयता का क्षेत्र बढ़ाकर सबमें अपने को और अपने में सबको देखनेवाला तत्व दर्शन हृदयंगम कराती है।वनस्पति जगत में भी आत्म-विस्तार की यही बात लागू होती है। पौधे बढ़ते और विकसित होते हैं। अंततः उनकी प्रौढ़ता परिपक्व होकर फलवती होत