पाप अज्ञानता के अंधकार में होता है। पाप का प्रमुख कारण वासना है। वासना भी अज्ञानता के कारण होती है। जहां प्रकाश है, वहीं उपासना है। जहां उपासना है, वहीं प्रेम है। प्रेम उपासना है, साधना है भक्ति के शिखर पर ज्ञान है और ज्ञान के शिखर पर प्रेम है। मनुष्य को अपना श्रम ज्ञान दीप को प्रज्वलित करने में लगाना चाहिए। इससे वासना की जगह उपासना जागृत होती है।
परमात्मा द्वारा निर्मित मंदिर में जहां उनका वास होता है, उनका दर्शन अहंकार रोकता है क्योंकि अहंकार कभी-कभी स्वयं ईश्वर होने का दंभ भरता है। मानव का पूरा शरीर मंदिर स्वरूप है। मनुष्य का हृदय गर्भ गृह है। सिर शिखर और शिखा ध्वजा है जबकि मस्तिष्क मंदिर है जिसमें ठाकुर जी स्वयं विराजते हैं।
चित में प्रज्ञा का प्रकाश, ज्ञान का दीपक जले तभी ठाकुर जी का निराकार स्वरूप दिखलाई देता है। भागवत श्रवण से चित रूपी दीपक जलाने का प्रयास मानव को करना चाहिए। मानव को अज्ञानता से लड़ना चाहिए मगर आलोचना और अज्ञानता पर चर्चा करके अपना समय बर्बाद नहीं करना चाहिए। मानव उत्साह की रंगोली सजाकर उमंग के रंगभरे, निराशा से बचे।
भक्तिभाव के सन्दर्भ में नसीहत देते हुए उन्होंने कहा कि साधारण जीव को प्रभा का प्रकाश शीतलता को समाहित करना चाहिए, भय मृत्यु का शंखनाद है जबकि निर्भयता नारायण का प्रसाद है। निर्भयता प्रभु को स्वयं को समर्पित करने से आती है।
By: Shri Ramesh Bhai Ojha
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