प्राय: भगवान श्रीकृष्ण की पटरानियां ब्रजगोपियों के नाम से नाक-भौं सिकोड़ने लगतीं| इनके अहंकार को भंग करने के लिए प्रभु ने एक बार एक लीला रची| नित्य निरामय भगवान बीमारी का नाटक कर पड़ गए| नारद जी आए| वे भगवान के मनोभाव को समझ गए| उन्होंने बताया कि इस रोग की औषधि तो है, पर उसका अनुपान प्रेमी भक्त की चरण-रज ही हो सकती है| रुक्मिणी, सत्यभामा सभी से पूछा गया| पर पदरज कौन दे प्रभु को| भगवान ने कहा, "एक बार ब्रज जाकर देखिए तो|" "नारद जी श्यामसुंदर के पास से आए हैं|" यह सुनते ही श्री राधा के साथ सारी ब्रजांगनाएं बासी मुंह ही दौड़ पड़ीं| कुशल पूछने पर नारद जी ने श्रीकृष्ण की बीमारी की बात सुनाई| गोपियों के तो "वैद्य भी हैं, दवा भी है, पर अनुपान नहीं मिलता|" "ऐसा क्या अनुपान है?" "क्या श्रीकृष्ण को अपने चरणों की धूलि दे सकोगी? यही है वह अनुपान, जिसके साथ दवा देने से उनकी बीमारी दूर होगी|" "यह कौन-सी बड़ी कठिन बात है, मुनि महाराज? लो, हम पैर बढ़ाए देती हैं" "अरी यह क्या करती हो?" नारद जी घबराए, "क्या तुम यह नहीं जानतीं ...